प्रथम एवरेस्ट विजेता शेरपा तेनजिंग की, Motivational Story in Hindi
Best Motivational Stories in Hindi : प्राप्त: काल मौसम बिल्कुल साफ था, बे चल पडे। जैसे जैसे वे चढ़ाई कर रहे थे। सांस लेने में कठिनाई हो रही थी। वे प्यास से बेहाल थे। अब केवल 300 फीट की चढ़ाई बाकी थी। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी एक बड़ी सी खड़ी चट्टान को पार करना। इसे पार करते समय बर्फ खिसकने का खतरा था। मगर उनके हौसले और दृढ़ संकल्प के आगे चट्टान को भी घुटने टेकने पड़े।
यह Motivational Story है, प्रथम एवरेस्ट विजेता शेरपा तेनजिंग की। जिन्होंने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर पर चढ़कर नया इतिहास रच दिया। यह एक ऐसे इंसान हैं जिनसे पर्सनली मुझे बहुत Motivational मिलती है। तो चलिए आज जानते हैं, इस महान पर्वतारोही के जीवन के बारे में विस्तार से।
प्रथम एवरेस्ट विजेता शेरपा तेनजिंग की Best Motivational Stories in Hindi
शेरपा तेनज़िंग |
याको से वस्त्रों के लिए ऊन , जूतों के लिए चमड़ा , ईधन के लिए गोबर तथा भोजन के लिए दूध मक्खन और पनीर मिलता था। पहाड़ों की ढलानों पर चराते-चराते वे याको को 18000 फुट तक की ऊंचाई पर ले जाया करते थे। जहां दूर-दूर तक हिमालय की चोटीया दिखाई दिया करती थी।
तब उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि वह दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर पर चढ़ने वाले प्रथम 2 व्यक्ति में से एक वह होंगे।
उस समय उनमें सबसे ऊंची चोटी थी - शोभो लुम्मा । उनके देशवासी एवरेस्ट को इसी नाम से पुकारते थे। एवरेस्ट के बारे में तब यह बात प्रचलित थी कि कोई पक्षी भी इसके ऊपर से उड़ नहीं सकता। तेनज़िंग इस अजय पर्वत शिखर पर चढ़ने और इस पर विजय प्राप्त करने का सपना देखने लगे। धीरे-धीरे यह सपना उनके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा बन गयी। तेनज़िंग को पर्वतारोहण का पहला मौका सन 1935 में मिला।
उस समय वह मात्र 21 वर्ष के थे। उन्हें अंग्रेज पर्वतारोही शिस्टन के दल के साथ कार्य करने के लिए चुना गया। काम मुश्किल था बार बार नीचे के शिविर से ऊपर के शिविर तक भारी बोझ लेकर जाना होता था। अन्य पर्वतारोहियों की तरह वे भी इस काम में अभ्यस्त थे। पहाड़ों पर चढ़ने का यह उनका पहला अनुभव था। कई बातें बिल्कुल नई और रोमांचक थी।
उन्हें विशेष प्रकार के कपड़े जूते और चश्मा पहनना पड़ता था और टीन के डिब्बे में बंद विशेष प्रकार का भोजन ही करना होता था। उनका बिस्तर भी अनोखा था, देखने में यह एक बैग जैसा प्रतीत होता था। उन्होंने चढ़ने की कला में भी बहुत कुछ नई बातें सीखी। नए प्रकार के उपकरणों के प्रयोग रस्सी व कुल्हाड़ियों का उपयोग और मार्गों को चुनना आदि ऐसी ही बातें थी जिन्हें जानना आवश्यक था।
सपना सच हुआ... (Motivational Success Story)
शेरपा तेनज़िंग और एंडमंड हिलेरी |
वह प्राप्त काल उठकर पत्थरों से एक बोरा भरकर पहाड़ियों पर ऊपर-नीचे नीचे चढ़ने उतरने का अभ्यास करते। उन्होंने 'करो या मरो' का दृढ़ संकल्प कर लिया था। दार्जिलिंग से प्रस्थान करने के लिए मार्च 1953 की तिथि निश्चित हुई। उनकी पुत्री नीमा ने साथ ले जाने के लिए एक लाल और नीली पेंसिल दी। जिससे वह स्कूल में काम करती थी। एक मित्र ने राष्ट्रीय ध्वज दिया।
तेनज़िंग ने दोनों वस्तुओं को एवरेस्ट शिखर पर स्थापित करने का वचन दिया। वह भरपूर आत्मविश्वास एवं ईश्वर से द्रण विश्वास के साथ 30 मई 1953 को प्रातः 6:30 बजे आगे बढ़े। सुरक्षा के लिए उन्होंने रेशमी ऊनी और वायु रोधी तीन प्रकार के मोजे पहन रखे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ , ग्रेट ब्रिटेन , नेपाल और भारत के चार झंडे उनकी कुल्हाड़ी में मजबूती से लिपटे हुए थे।
उनकी जैकेट की जेब में उनकी पुत्री की लाल नीली रंग की पेंसिल थी। जब केवल 300 फ़ीट और चढ़ना बाकी था। तो एक बड़ी समस्या सामने आई। यह समस्या एक खड़ी चट्टान थी। पहले हिलेरी एक सकरी और ढालू दरार से होकर इस की चोटी पर पहुंचे फिर तेनजिंग ने यहां पर कुछ समय आराम किया। उनका लक्ष्य पास था हृदय उत्साह और उत्तेजना से भर उठा।
वह चोटी के नीचे कुछ क्षण रुके ऊपर की ओर देखा और फिर आगे बढ़े। 30 फुट की रस्सी के सिरे दोनों के हाथों में थे। उन दोनों में 2 मीटर से अधिक अंतर न था। धैर्य के साथ आगे बढ़ते हुए वह प्रातः 11:30 बजे संसार की सर्वोच्च शिखर एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने में कामयाब हो गए। एवरेस्ट की चमकती चोटी पर खड़े तेनजिंग और हिलेरी का मन हर्ष एवं विजय की भावना से भर उठा।
ऐसा दृश्य उन्होंने जीवन में कभी नहीं देखा था। उनके खुशी के आंसू छलक आए तेनजिंग ने राष्ट्रध्वज बर्फ में गाड़ा और कुछ मिठाईयां व बेटी की दी हुई पेंसिल बर्फ में गाड़ दी। उन्होंने भगवान को धन्यवाद दिया और मन-ही-मन अपनी सकुशल वापसी की प्रार्थना की। एवरेस्ट से लौटने पर नेपाल नरेश ने उन्हें राजभवन में आमंत्रित किया। और 'नेपाल तारा' पदक प्रदान किया।
भारत में भी उनका भव्य स्वागत हुआ। भूतपूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने पर्वतारोहियों के सम्मान में एक स्वागत समारोह आयोजित किया और 4 नवंबर 1954 को पंडित नेहरू ने हिमालय माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट का उद्घाटन किया। तेनजिंग ने विदेश जाकर प्रशिक्षण प्राप्त किया और इस संस्थान के निर्देशक बने। वह भारत के सद्भावना राजदूत भी रहे ।।
सेवानिवृत्ती के बाद उन्होंने सलाहकार के रूप में अपने अनुभव से संस्थान को फायदा पहुंचाया। उनकी अदम्य साहस और संकल्प से द्रढ़ता के कारण उन्हें 'बर्फ का शेर' कहा जाता था। मार्कोपोलो , कोलंबस , बास्कोडिगामा जैसी महान साहसिक अभियानों के नेतृत्वकर्ता की भांति तेनजिंग का नाम भी सदैव इतिहास में अमर रहेगा।
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